गिरते पुल और “सस्ता” जीवन
जब कभी किसी ने पुल नामक संरचना की कल्पना की होगी तो उसके दिमाग में कहीं न कहीं एक दशरथ मांझी हुंकार भर रहा होगा। कहीं न कहीं नदियों के दुष्कर सफर और डूबते जीवन की पीड़ा ने उसे इस नई संरचना के बारे में सोचने की प्रेरणा दिया होगा। घंटों जाम में फंसने के बाद जरूर किसी के मन में नदियों पर खड़े पुल को जमीन पर उतारने की कल्पना ने जन्म लिया होगा।
लकड़ी और पीपे से होते हुए पीलर पर खड़े पुल आजकल के बढ़ते ट्रैफिक को देखते हुए आम जरूरत बनते जा रहे हैं। आए दिन ट्रैफिक में फंसे लोग एक पुल के निर्माण के लिए सरकार को कोसते नजर अा जाते हैं। इसके पीछे कहीं न कहीं ये उम्मीद दबी होती है कि पुल बन जाने से जाम की समस्या से मुक्ति मिल जाएगी और यात्रा सुगम बन जाएगी।
यह उम्मीद गलत भी नहीं है लेकिन अगर वही पुल मौत की डिलीवरी करने लग जाए तो ?
अगर उसी पुल के नीचे दब कर कोई अपना अस्पताल में जूझने पर मजबूर हो जाए तो ?
पिछले कुछ महीनों से आए दिन देश में किसी न किसी स्थान पर पुल गिरने की घटनाओं में भारी संख्या में लोगों के हताहत होने की खबरें आती रही हैं। इन पुलों में पुरानी संरचना के साथ साथ नवीन और यहां तक कि निर्माणाधीन संरचनाएं भी शामिल हैं। वह चाहे मुंबई रेलवे स्टेशन का पुल हो या बंगाल में नया बना हुआ पुल, वाराणसी का निर्माणाधीन पुल हो या जूनागढ़ का पुल। इन सभी घटनाओं ने किसी न किसी से उसके घर का उजाला छीनने का ही काम किया है। आखिर क्या कारण है जो ये घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं और जिम्मेदार लोग सुधरने का नाम भी नहीं ले रहे हैं ?
अभी दो दिन पहले वाराणसी में उसी पुल के नीचे एक दुर्घटना घटी जिसके टूटने से 15 मई 2018 को बड़ी संख्या में लोगों को जान गंवानी पड़ी थी। इस बार इस दुर्घटना के शिकार मेरे भाई समान मित्र कुलदीप राय को बनना पड़ा। ईश्वर की महती कृपा रही कि वो और उनके ज्येष्ठ पुत्र प्रत्युष सकुशल हैं लेकिन कुलदीप के पैर में बहुत बुरी तरह चोट लगी है और वाराणसी के ट्रॉमा सेंटर में उनका इलाज चल रहा है। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, पुल के नीचे की ट्रैफिक को ब्लॉक किए बिना ऊपर काम चल रहा था और अचानक ही लोहे का गार्डर, शटरिंग और रॉड सरक कर नीचे की तरफ गिर पड़े जिसकी चपेट में आकर कुलदीप को जख्मी होना पड़ा। इसके अलावा ऊपर काम कर रहे 4 मजदूर भी फंस गए जिन्हें किसी तरह वहां से निकाला गया।
घटना के बाद वायरल वीडियो में एक जनाब पत्रकारों के सवालों के जवाब में सेतु निगम और ठेकेदार को क्लीन चिट देते नजर आए जबकि स्थानीय लोगों का स्पष्ट तौर पर कहना था कि ये पूरी तरह से सेतु निगम और निर्माण से संबंधित अधिकारियों की लापरवाही का नतीजा था। सबसे बड़ी लापरवाही तो यही दिखती है कि प्रधानमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र में आने वाले इस पुल का निर्माण पिछले कई सालों से चल रहा है लेकिन आज तक पूरा नहीं हो सका। सूबे के मुखिया भी अक्सर अपने आगमन के दौरान इस पुल की प्रगति के बारे में पूछना नहीं भूलते लेकिन फिर भी इस पुल के निर्माण के पीछे की कच्छप गति का कारण समझ से परे है।
हर निर्माण से जुड़ी कुछ नियत प्रक्रियाएं होती हैं जिनका पालन करना संबंधित ठेकेदार और नियामक संस्थाओं के लिए आवश्यक होता है। इन प्रक्रियाओं में कुछ ऐसी शर्तें भी शामिल हैं जो निर्माण के बाद भी एक नियत अवधि के लिए ठेकेदार को संबंधित संरचना के प्रति जिम्मेदार बनाती हैं जिनका अनुपालन सुनिश्चित कराना स्थानीय प्रशासन की जिम्मेदारी होती है। किंतु पैसों की चमक के पीछे अंधे लोगों के लिए किसी की जान की कीमत सिर्फ एक संख्या बन कर रह गई है। शायद इसीलिए वो कोई कदम तब तक नहीं उठाते जब तक कि उन्हें हताहतों की एक संख्या नहीं मिल जाती। ये सच्चाई है कि अगर तय मानकों और प्रक्रियाओं का पालन किया जाए और समय समय पर इन पुलों की सुरक्षा जांच और मरम्मत का काम किया जाय तो इन हादसों की संख्या को नगण्य बनाया जा सकता है।
सड़क हादसों से बचने और सड़क के नियमों का पालन कराने के लिए कठोर कानून लाने वाली सरकार आखिर अपने ठेकेदारों और अधिकारियों की इन्हीं सड़कों के निर्माण में बरती जाने वाली लापरवाही को कैसे नहीं देख पा रही है?
सरकार में आने के बाद प्रक्रियाओं में तेजी लाने का दावा करने वाली सरकार आखिर किन प्रक्रियाओं में तेजी की बात कर रही है जबकि आम जनता को प्रभावित करने वाले ऐसे मुद्दे निर्माणाधीन की श्रेणी से बाहर नहीं अा पा रहे और आए दिन किसी न किसी को हताहत करते जा रहे हैं।
जनता के प्रतिनिधि होने का दावा करने वाले जनप्रतिनिधि आखिर इन मुद्दों को किन आंखों से देखते हैं कि उन्हें किसी का घायल होना नहीं अखरता बल्कि अपनी राजनीति चमकाने के लिए किसी के मरने का इंतजार करते रहते हैं।
लड़ भिड़कर पुल का निर्माण शुरू कराने में सक्षम जनता आखिर खून के आंसू बहाने के लिए कैसे तैयार है जबकि उनकी वही मांग 4 साल के बाद भी अधूरी है।
जिम्मेदार अधिकारियों और ठेकेदारों को आत्मग्लानि का भाव क्यों नहीं आता जब उनकी अपनी लापरवाही के कारण मानव जीवन को हताहत होना पड़ता है?
पैसे की धुन में अंधे जन ये क्यों भूल जाते हैं कि पैसा सांसों की माला टूटने के बाद साथ नहीं जाता।
आखिर समय में अपने किए कर्म ही याद आते हैं क्योंकि पैसा कभी भी किसी की जिंदगी से बड़ा नहीं हो सकता।
मुझे नहीं पता ये कितना सच है पर जितने लोग बढ़ते जाते हैं लोगों की संवेदनाएं खत्म होती जाती हैं!कैसे संवेदन शून्यता है कि कोई भी जवाबदेही नहीं।
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बड़प्पन पद में नहीं बल्कि कर्म और व्यवहार में दिखता है। कुछ भी बनने से पहले यह जरूर सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि आप खुद को मनुष्य कह सकते हैं कि नहीं। जिस दिन ये सोच अा गई, उस दिन आपको जवाबदेही का अहसास खुद ही हो जाएगा।
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Bahut sahi jawab
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धन्यवाद श्रीमान 🙏😊
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🙏😊
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हमारे देश में जीवन का कोई मोल नहीं. ज़िम्मेदारी , भावनाओं का भी मोल नहीं.
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