मुगालता – ए – दारू
बात पते की कहती दारू, पीते इसको जो घरबारू
सेहत बचे ना तन पर गारू, घर बिकता छूटे मेहरारू
सुबह सुबह सर भार लगे है, रात में बीवी की मार पड़े है
ऑफिस में गर देर भई तो, अधिकारी की डांट पड़े है
मुनिया के सर चोट लगी फिर, बेवड़े पति तो चाहिए दारू
दिन भर खट कर पेट भरी पर, सब मेहनत पर भारी दारू
घूमे बच्चे चुनते कूड़ा, शवशैया पर बाप है बूढ़ा
अम्मा की परवाह किसे है, उसको तो बस चाहिए दारू
शिक्षित सुंदर रचना को जब, मिला पति जो पीता दारू
छोड़ नौकरी घर अा बैठा, भोजन मिले न मिलता गारू
बिटिया गर्भ में पलती उसके, उसका फ्यूचर पी गई दारू
छोड़ पति बेटी को चुना तब, पता चला कि क्या है दारू
दोस्तों से दुश्मनी करा दे, दुश्मन को भी दोस्त बना दे
नाते रिश्ते तब तक टिकते, जब तक दिखे बोतल में दारू
ऐसे पियक्कड़ भी दिख जाते, बच्चों को भी साथ पिलाते
नन्हें नादानों की फिकर नहीं है, फिर भी उनके बाप कहाते
पीने पर हर दिन की कसमें, छोड़ दिया बस कल से दारू
आज गया फिर आज ही आया, आया न कल जो छूटे दारू
ऐसे जनों से इतना है कहना, पी गई राजाओं को दारू
बोतल के भ्रम में जो डूबे, चखने के संग चर गई दारू
बेहतरीन काव्य👌
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सादर धन्यवाद 🙏
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🙏
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Ha Ha Ha…..waah….kya khub likha hai aur satya likha hai…..bahut badhiay sandesh.
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सादर धन्यवाद 🙏☺️
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