- जीरो बजट खेती और इसके फायदे
- जीरो बजट खेती ऐसी खेती को कहते हैं जिसके लिए किसान को किसी भी तरह का कर्ज न लेना पड़े। यह एक प्रकार से Back to Basics की अवधारणा है।
- इस तरह की खेती में किसी भी कीटनाशक, रासायनिक खाद और आधुनिक तरीकों का इस्तेमाल नहीं किया जाता और यह पूरी तरह से प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर होती है
- रासायनिक खाद की जगह इसमें देशी खाद और प्राकृतिक चीजों से बनी खाद का इस्तेमाल किया जाता है
- जीरो बजट खेती के प्रबल समर्थक अरुणांचल प्रदेश के राज्यपाल आचार्य देवव्रत का कहना है कि यह प्राकृतिक खेती भारत में परंपरागत रुप से हजारों साल तक की गई है। इसमें एक देशी गाय से 30 एकड़ तक खेती की जा सकती है तथा इस पद्धति से हमारा उत्पादन कम नहीं होता। इसके अतिरिक्त रासायनिक खेती में लागत बहुत अधिक होती है जबकि इस खेती में लागत लगभग न के बराबर है
- आचार्य देवव्रत के अनुसार इस खेती में प्लास्टिक के एक ड्रम में 180 लीटर पानी डालते हैं। एक देशी गाय एक दिन में लगभग 8 किलोग्राम तक गोबर और गोमूत्र देती है जिसे ड्रम के पानी में मिला दिया जाता है। डेढ़ से दो किग्रा गुड़, लगभग इतना ही किसी भी दाल का बेसन और एक मुट्ठी मिट्टी मिलाकर इन सबका घोल बनाते हैं। पांच दिनों तक इसे छोड़ देते हैं और पांचवें दिन एक एकड़ के लिए खाद तैयार हो जाती है
- ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते प्रकोप के बीच इस प्रकार की प्राकृतिक खेती से पर्यावरण को नुकसान पहुंचने से बचाया जा सकता है। इससे जमीन की उर्वरा शक्ति भी बचेगी और पानी की 60 से 70 प्रतिशत तक बचत भी होगी।
- रासायनिक खेती के जरिए अनेकों असाध्य रोगों ने हमारे जीवन में अपना स्थान बना लिया है और विडंबना यह है कि हमारे देश के विश्वविद्यालय लगातार रासायनिक खेती को Promote करते रहे हैं जबकि दुनिया के अनेक देशों में अब भी जीरो बजट खेती सफलतापूर्वक की जा रही है। अब जबकि भारत सरकार ने इस दिशा में पहल कर दिया है तो उम्मीद है कि भारत में फिर से इसका प्रसार तेजी से होगा। इसके अलावा भारत में यह खेती करना अपेक्षाकृत आसान भी है
- यूरेनियम संवर्द्धन की प्रक्रिया और उसकी आवश्यकता
- चर्चा में क्यों –
- वर्ष 2015 में ईरान ने अमेरिका सहित ब्रिटेन, फ्रांस, चीन, रुस और जर्मनी के साथ परमाणु समझौता किया था। ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर पश्चिमी देश हमेशा से सवाल खड़े करते रहे हैं जबकि ईरान ने इसे हमेशा शांतिपूर्ण ही करार दिया है। इस समझौते में तय किया गया था कि ईरान अपनी संवेदनशील परमाणु गतिविधियों को सीमित करेगा और बदले में समझौते में शामिल अन्य देश उस पर लगे आर्थिक प्रतिबंधों को हटा लेंगे। अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के सत्ता में आने के बाद से यह समझौता उन्हें पसंद नहीं आया और कुछ दिन पहले उन्होंने मनमाने तरीके से इस समझौते से अलग होने की घोषणा कर दी। प्रतिकिया में ईरान ने भी इस समझौते को तोड़ दिया है और यूरेनियम संवर्द्धन की सीमा को बढ़ाते हुए अपने परमाणु कार्यक्रम को गति देने में जुट गया है
- कच्चा यूरेनियम
- किसी खदान से निकले यूरेनियम में एक प्रतिशत यूरेनियम ऑक्साइड होता है तथा इसके प्रोसेसिंग की जरुरत होती है। रसायनों के साथ इसकी अभिक्रिया कराने पर ऑक्साइड हासिल होता है जिससे येलो केक तैयार होता है।
- येलो केक एक पाउडर होता है जिसमें 80 प्रतिशत यूरेनियम ऑक्साइड होता है
- किसी खदान से निकले यूरेनियम में एक प्रतिशत यूरेनियम ऑक्साइड होता है तथा इसके प्रोसेसिंग की जरुरत होती है। रसायनों के साथ इसकी अभिक्रिया कराने पर ऑक्साइड हासिल होता है जिससे येलो केक तैयार होता है।
- संवर्द्धन की जरुरत क्यों
- परमाणु रिएक्टरों में इस्तेमाल करने से पूर्व यूरेनियम को संवर्धित करना पड़ता है क्योंकि प्राकृतिक रुप से प्राप्त यूरेनियम में यूरेनियम–235 की मात्रा बहुत कम होती है
- यह यूरेनियम का ही एक समस्थानिक है जो तेजी से विखंडित होकर बड़ी मात्रा में उर्जा उन्मुक्त करता है तथा इस प्रक्रिया को नाभिकीय विखंडन कहा जाता है
- यूरेनियम के दोनों समस्थानिकों में इनके केंद्रक में मौजूद न्यूट्रानों की संख्या का अंतर होता है। यूरेनियम–235 के अणु में 92 प्रोटॉन और 143 न्यूट्रान होते हैं जबकि यूरेनियम–238 के अणु में 92 प्रोटॉन और 146 न्यूट्रान होते हैं
- संवर्द्धन की प्रक्रिया
- इसके तहत येलो केक को एक गैस में तब्दील किया जाता है जिसे यूरेनियम हेक्साफ्लोराइड कहा जाता है। इस गैस को सेंट्रीफ्यूज में भेजा जाता है जहां इस गैस को तेजी से घुमाया जाता है जिसके कारण यूरेनियम–238 से लैस अपेक्षाकृत भारी गैस बाहर निकल जाती है और यूरेनियम–235 से लैस अपेक्षाकृत हल्की गैस अंदर रह जाती है
- संवर्द्धन प्रक्रिया के अंत में दो चीजें प्राप्त होती हैं –
- संवर्धित यूरेनियम
- यूरेनियम कचरा
- ईरान को परमाणु समझौते के तहत यूरेनियम संवर्द्धन की छूट केवल 3.67 प्रतिशत तक ही दी गई थी।
- चर्चा में क्यों –
- संतरे में सांप का जहर सोखने की क्षमता
- पश्चिम बंगाल के आसनसोल स्थित Gupta College of Technological Sciences में प्राणि विज्ञान के व्याख्याता डॉ० शुभमय पांडा ने अपने शोध में साबित किया है कि संतरे के रस में इंडियन ग्रीन ट्री वाइपर नामक विषैले सांप के विष का प्रभाव खत्म करने की क्षमता है
- जंगलों एवं उनके आसपास के ग्रामीण इलाकों में इंडियन ग्रीन ट्री वाइपर नामक खतरनाक सांप पाया जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम ट्राइमेरासुरस ग्रैमाइनस है। बंगाल और Jharkhand में भी इसकी प्रजाति पाई जाती है
- डॉ० शुभमय पांडा ने बताया कि इस सांप में एक विशेष प्रकार के प्रोटीन से युक्त हीमोटॉक्सीन नामक विष होता है जो खून का थक्का बना देता है और उत्तकों पर खतरनाक प्रभाव डालता है। इससे मरीज की हालत बिगड़ती जाती है और कई बार एंटी वेनम भी प्रभावी नहीं होता। पीड़ित व्यक्ति की किडनी काम करना बंद कर देती है और ब्लड प्लेटलेट्स भी क्षतिग्रस्त होती है
- गहन शोध से पता चला है कि संतरे के रस में ऐसी प्रतिरोधक क्षमता होती है जो सांप के विष के असर को कम कर देती है। इसे पिलाने से खून का थक्का जमना रुक जाता है और हालत में सुधार होने लगता है।
- इस शोध को एक मार्च को State Science and Technology Congress में मानव कल्याण की सार्थक खोज बता कर प्रथम स्थान प्रदान किया गया
- पश्चिम बंगाल के आसनसोल स्थित Gupta College of Technological Sciences में प्राणि विज्ञान के व्याख्याता डॉ० शुभमय पांडा ने अपने शोध में साबित किया है कि संतरे के रस में इंडियन ग्रीन ट्री वाइपर नामक विषैले सांप के विष का प्रभाव खत्म करने की क्षमता है
- हृदय को प्रभावित करता है प्री–एक्लेमप्सिया
- अल्ट्रासाउंड मेडिसिन नामक जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन में यह दावा किया गया है कि प्री–एक्लेमप्सिया गर्भवती महिलाओं को उच्च रक्तचाप की शिकायत के साथ – साथ हृदय को भी प्रभावित करता है और इसका खतरा गर्भावस्था के बाद भी बना रहता है
- प्री–एक्लेमप्सिया एक ऐसी स्थिति होती है जो केवल गर्भावस्था के दौरान अनियंत्रित विद्युत गतिविधियों के कारण उत्पन्न होती है
- अध्ययन की सह–लेखिका अर्चना सेल्वाकुमार ने कहा कि प्री–एक्लेमप्सिया Stress Test की तरह है।
- इस शोध के लिए शोधकर्ताओं ने गर्भावस्था के बाद 6 महीने से लेकर 18 साल के बीच महिलाओं की ट्रांसस्टोरासिक इकोकार्डियोग्राफी हृदय की जांच की
- अल्ट्रासाउंड मेडिसिन नामक जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन में यह दावा किया गया है कि प्री–एक्लेमप्सिया गर्भवती महिलाओं को उच्च रक्तचाप की शिकायत के साथ – साथ हृदय को भी प्रभावित करता है और इसका खतरा गर्भावस्था के बाद भी बना रहता है
साभार – दैनिक जागरण (राष्ट्रीय संस्करण) दिनांक 8 जुलाई 2019
आज के अंक से संबंधित पीडीएफ डाउनलोड करने के लिए क्लिक करें – सामयिकी – 8 जुलाई 2019