शिक्षा और ग्रामीण भारत – भाग एक
आज सुबह आठ बजे जब मैं अपने खेतों की तरफ जा रहा था तो रास्ते में एक तिराहे पर मुझे कल्लू (कल्लू तो आपको याद ही होगा –पढ़ें काव्य श्रृंखला–18) का छोटा भाई टीपू मिल गया। गाँव के सरकारी प्राथमिक विद्यालय में कक्षा 5 का छात्र टीपू वैसे तो होनहार छात्रों में से एक था किंतु आज सुबह ही उसे खेतों की तरफ जाते हुए देखकर मैंने अनायास ही पूछ लिया, “कहाँ की तैयारी है, टीपू?” मुझे सामने देख टीपू ने अभिवादन किया और बताया कि वह अपने खेतों पर जा रहा है। चूँकि उसके खेत भी मेरे खेतों के बगल में ही थे तो मुझे टीपू के रुप में एक साथी के साथ–साथ मेरी आज की विचार श्रृंखला का विषय भी मिल गया।
बातचीत के क्रम को आगे बढ़ाते हुए मैंने टीपू से उसके विद्यालय न जाने का कारण पूछ लिया तो उसने बताया कि उसके पिताजी खेतों में काम कर रहे थे और उनकी सहयोग की जिम्मेदारी उसे ही उठानी थी। उसका बड़ा भाई कल्लू अपने रहन–सहन और वैलेंटाइन वीक में पड़ी मार के फलस्वरुप स्वास्थ्य लाभ ले रहा था। वैसे भी मैंने कल्लू को कभी भी खेतों में काम करते हुए नहीं देखा था तो उससे कुछ उम्मीद भी नहीं थी। टीपू ने आगे बताया कि उसके विद्यालय में अध्यापकगण जो कुछ सिखाते हैं वो उसे अच्छी तरह समझता और याद कर लेता है लेकिन घर आने पर उसके लिए जो काम निर्धारित हैं, उन्हें करते–करते वह इतना थक जाता है कि रात में नींद आने लगती है और वह न चाहते हुए भी सो जाता है। उसके काम की सूची में पशुओं का आहार देने से लेकर खेतों में काम करने तक के सारे काम सम्मिलित थे।
नीति नियंताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं के मंथन के सारे विषय अब मेरे सामने उपस्थित थे। टीपू के रुप में एक तरफ जहाँ देश का भविष्य मेरे सामने खड़ा था तो दूसरी तरफ dropout के कगार पर खड़ा एक हाेनहार छात्र। एक तरफ वह अपने परिवार की जिम्मेदारियों को संभाल रहा था तो दूसरी तरफ श्रम कानूनों की परिभाषा में वह एक बाल श्रमिक भी था। बेरोजगारी की अनेकों धारणाएँ भी तत्क्षण मेरे सम्मुख खड़ी थीं। “एक कमाए और दस खाएं” वाली परंपरा भी उस एक परिवार में ही दृष्टिगोचर थी।
आगे रास्ते में ही बकरी चराते हुए और पतंग उड़ाते हुए दो अनाथ भाई भी दिख गए जिन्होंने वक्त के थपेड़ों से सांठगांठ कर ली थी और दिशाहीन जीवन की तरफ अग्रसर हो चले थे। चमचमाती dress में जाते हुए अंग्रेजी माध्यम के कुछ छात्र भी दिख गए जिनके माता–पिता बड़ी ही तत्परता से उन्हें तैयार करके स्कूल बस में बिठाने लेकर जा रहे थे।
मेरे आसपास कुछ उदाहरण ऐसे भी हैं जहाँ बहन सरकारी स्कूल में पढ़ती है और भाई कांवेंट स्कूल में। बहन को वही शिक्षा, यूनिफार्म, जूते, भोजन इत्यादि के साथ पूर्णतया फ्री में उपलब्ध है जबकि भाई की अंग्रेजी माध्यम की उसी शिक्षा के लिए हजारों रुपए फूँके जा रहे हैं। बहन पढ़ना चाहती है लेकिन उसे समय नहीं दिया जाता, भाई का बिल्कुल मन नहीं लगता लेकिन पूरा परिवार उसके पीछे लगा रहता है। बहन की पढ़ाई पर इसलिए भी ध्यान नहीं है क्योंकि वह सरकारी विद्यालय में फ्री में पढ़ती है, भाई पर सबसे ज्यादा ध्यान इसलिए है क्योंकि उसकी पढ़ाई में पैसा पानी की तरह खर्च होता है। बहन को सिर्फ इसलिए पढ़ाया जाता है कि उसकी शादी में कोई रुकावट न हो जबकि भाई “बुढ़ापे के सहारे” के रुप में देखा जाता है और इसलिए सबकी अपेक्षा के केंद्र में है।
माता–पिता कितने जिम्मेदार?
इस मुद्दे तह तक जाने पर जो तस्वीर सामने आई वह न सिर्फ चौंकाने वाली थी बल्कि सोचने पर विवश कर देने वाली भी थी। जितनी तत्परता माता–पिता महंगे विद्यालयों में पढ़ने वालों बच्चों को विद्यालय भेजने के प्रति दिखाते हैं उसकी आधी तत्परता भी वो सरकारी विद्यालयों वाले बच्चों पर नहीं दिखाते। चूँकि सरकारी विद्यालयों में कुछ अवसंरचनात्मक कमियाँ हैं और इसका फायदा उठाकर कुछ शरारती बच्चे विद्यालय बंक करने में सफल हो जाते हैं किंतु शायद ही किसी माता–पिता ने उन्हें वापस विद्यालय पहुँचाने का प्रयास किया होगा। महंगे विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चों के टेस्ट और अटेंडेंस के लिए अनेकों आयोजनों और पारिवारिक समारोहों को दरकिनार कर देने वाले माता–पिता सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले छात्रों के अटेंडेंस और परीक्षा के प्रति सबसे ज्यादा लापरवाही का व्यवहार करते हैं। सबसे ज्यादा कड़वी बात यह उभरकर सामने आई कि सरकारी विद्यालयों में फ्री में बंटने वाले संसाधनों के वितरण के समय छात्र संख्या अचानक ही बढ़ जाती है जाे संसाधन प्राप्त हो जाने पर वापस कम हो जाती है।
फ्री की हर वस्तु को सबसे ज्यादा आहरित करने वाले समाज में फ्री में उपलब्ध दुनिया की सबसे बहुमुल्य नियामत शिक्षा के प्रति ऐसी उदासीनता मेरी समझ में तो बिल्कुल नहीं आई। अगर आपकी समझ में आई हो तो कमेंट के माध्यम से अवश्य सूचित करें।
ये श्रृंखला जारी रहेगी।
फ्री की संस्कृति पर आधारित हमारे पोस्ट विचार श्रृंखला–14 और विचार श्रृंखला–15 को अवश्य पढ़ें।