कहीं एक पंक्ति पढ़ा था, “कल रात जिंदगी से मुलाकात हो गई।”
पंक्ति क्या, एक पूरी कविता ही थी जिसकी अंतिम पंक्ति है, “मैं जिंदगी हूँ पगले, तुझे जीना सिखा रही थी।”
मध्य की पंक्तियों में कवि द्वारा जीवन के कष्टों को बड़े ही सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया गया था।
संभवतः आप लोगों ने भी यह कविता पढ़ी ही होगी। उस कविता को पढ़ कर मन में एक प्रश्न उठा कि जो जिंदगी कविता में मानव के प्रतिनिधि को जीना सिखा रही थी, वह वास्तव में है क्या चीज।
जितने लोग, उतने विचार। जिसके जैसे सुख व दुख, उसके लिए जिंदगी की वैसी ही परिभाषा।
क्या भौतिक सुखों की प्राप्ति को ही अच्छी जिंदगी का द्योतक मान लेना चाहिए?
यदि हाँ, तो बड़े धनकुबेर भी अपनी वर्तमान स्थिति से संतुष्ट क्यों नहीं हैं जबकि उनके पास तो भौतिक सुख सुविधाओं की कोई कमी नहीं है।
और यदि भौतिक साधनों के अभाव को बुरी जिंदगी का उदाहरण मान लिया जाए, तो हमारे आस पास ऐसे अनेकों उदाहरण विद्यमान हैं जिनके पास साधनों के नाम पर कुछ भी नहीं है किंतु चेहरे पर मुस्कान की आभा अवश्य दिख जाती है (कभी कभार ही सही)।
साधन तो बहुत सारे लोगों के पास हैं किंतु जो व्यक्ति उन साधनहीन लोगों को मुस्कान का एक पल दे सके, मेरी समझ से जिंदगी की वास्तविक परिभाषा उसी के पास है।
विचार सादर आमंत्रित हैं। आपके विचारों पर आधारित यह चर्चा जारी रहेगी।