मन में आया कि कुछ लिखूं। मुद्दे सामने थे हजारों की संख्या में। एक को चुनता तो दूसरा दु:खी होता और दूसरे को चुनता तो पहला और तीसरा। यह क्रम चक्रीय क्रम में असीमित रुप से बढ़ता चला जा रहा था।
ऐसा नहीं कि वे मुद्दे लेखनी के मोहताज थे, उन पर पर्याप्त कलमघसीटी और चाय पर चर्चा हो चुकी थी और अनवरत जारी है किन्तु आमजन द्वारा।
कहीं किसी के रोजगार की समस्या थी तो कहीं कोई इलाज के अभाव में मरी अपनी पत्नी के गम में दुःखी था। कहीं सप्ताह में 24 घंटे बिजली आने की शिकायत थी तो कहीं कोई किसान वर्षा और सिंचाई के अभाव में अपनी फसल की बर्बादी पर ऑंसू बहा रहा था।
अनगिनत समस्याएँ व अथाह दुःख। जिम्मेदार व सशक्त लोगों ने संभवत: पढ़ने की आदत छोड़ दी है या फिर अपनी अट्टालिकाएं इतनी ऊँची कर ली हैं कि उन्हें ये मुद्दे दिखाई और सुनाई नहीं देते।
सबसे बड़ी विडम्बना तो ये है कि इन मुद्दों के समाधान की राजनीति करने वाले लोग स्वयं भी नहीं चाहते कि ये मुद्दे कभी समाप्त हों।
गरीबी और भूखमरी की बात करने वाले लोगों को ये मुद्दे सिर्फ चुनावों के समय ही याद आते हैं। जबकि उस समय भी ये लोग सिर्फ चिंता जताने की ही कार्य करते हैं, वास्तविक धरातल पर उन्होंने गरीबी का ‘ग’ भी नहीं देखा होता है। चुनाव बीत जाने के बाद ये मुद्दे पुनः अगले चुनाव तक के लिए स्थगित हो जाते हैं।
और तो और, सृष्टि का नियंता भी आश्चर्यचकित है कि आखिर वह किस धर्म और संप्रदाय से संबंधित है। कहीं मंदिर, मस्जिद और गिरजे की लड़ाई है तो कहीं नाम पर ही विवाद है। जबकि भारतीय संविधान में भी धार्मिक स्वतंत्रता को मूल अधिकार की संज्ञा प्राप्त है तथापि जबरन धर्म परिवर्तन का दौर अनवरत जारी है।
ईश्वर सबका कल्याण करें और सबको अपना काम जिम्मेदारी से करने की सद्बुद्धि दें। और उससे पहले राजनीतिक नेतृत्व को वोट बैंक की राजनीति से इतर सोचने की इच्छाशक्ति दें । साथ ही साथ सबसे बड़ी जरुरत है कि आम जनता में जागरुकता उत्पन्न हो और वो इन बांटने वाले तथा स्वार्थपरक हथकंडों को पहचान कर उनसे सावधान रहें।