बाज़ार – ए – जिंदगी
खुली आंखें सुबह में जब, रौनक था बाजारे गम
कहीं नफ़रत की रेहड़ी थी, कहीं गोदाम मिथ्या का
खरीदे ना कोई इज्जत, बेइज्जत मॉल भारी था
किसी को थी कोई दिक्कत, किसी पर काल भारी था
लगा मैं ढूंढने वो घर, जहां बिकती हो सच्चाई
मुखौटे हर जगह देखे, सत्य पर राज भारी था
हर एक घर में दिखी नफ़रत, बेचैनी बेरहम देखी
सभी चाहें खुली बस्ती, कहें फिर कोई मेरा ना
बनें पहले तो सब अपने, निहारें खुद की सच्चाई
चलो कर लें खरीददारी, खुशी व प्रीत के दर पर
करें बंद मिल बाजारे गम, न फैले फिर कोई नफ़रत
सभी के साथ हो कोई, अकेलेपन के शोरूम बंद
चलो सब मॉल, इज्जत के, बेइज्जत मॉल खाली कर
रहें सब साथ मिल जुलकर, न गम खाए किसी का घर