मेरी पहली कविता – रेल की यात्रा
अभी अभी एक झगड़ा देखा
झगड़ा क्या, बस रगड़ा देखा
बात न थी कोई बहुत बड़ी सी
बस एक वृद्धा जिद पर अड़ी थी
कहती थी कि पैसे दिए हैं
बर्थ मेरी है मेरी रहेगी
खाओ जाकर मिडिल बर्थ पर
टांग मेरी बर्थ पर ही रहेगी
लिया रूप विकराल विपक्षी ने
बात जो उसकी बच्ची की थी
मां कैसे चुप रहती इस पर
धक्का उसकी बेटी को लगी थी
बोली, बुढ़िया हटो यहां से
मिडिल बर्थ अब खुल कर रहेगी
वृद्धा फिर भी अड़ी हुई थी
बोली, वो भी नहीं हिलेगी
मिडिल बर्थ नहीं खुलती दिन में
पर खलल नहीं मंजूर थी उसे
शोर सुन सारे यात्री आए
वृद्ध जोड़े को समझा ना पाए
अंत में आए सचल परीक्षक
बर्थ बदल दी एक पक्ष की
एक यात्री जो था सहयोगी
हुआ तैयार अन्यत्र गमन को
तब जाकर के हुई शांति फिर
गाड़ी चली गंतव्य की ओर
था अरुण एक प्रत्यक्षदर्शी
और जन्म लिया पहली कविता ने
धन्य हो ये रेल की यात्रा
जगा दिया कवि को मेरे
बहुत खूब
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बहुत बहुत धन्यवाद 😊
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